ॐ असतो मा सद्गमय।

तमसो मा ज्योतिर्गमय।

मृत्योर्मामृतं गमय ॥ 

ॐ शांति शांति शांति।। – बृहदारण्यकोपनिषद् – १.३.२८

अर्थात् –

 मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो।

 मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो।

 मुझे मृत्यु से अमरता (अमरत्व) की ओर ले चलो।।

आज तक हम “बृहदारण्यक उपनिषद्” की इन पंक्तियों को एक प्रार्थना के रूप उच्चारित करते या गाते हुए आ रहे हैं परन्तु क्या हमने कभी इस ओर अपना ध्यान आकर्षित किया कि इन तीनों पंक्तियों में एक समानता है?

क्या है वो समानता??

वो समानता यह है कि इन तीनों पंक्तियों में हर “प्रारंभिक अवस्था” को उसकी सबसे “उच्च और अंतिम अवस्था” तक पहुंचाने की बात कही गई है, एक “निम्न अवस्था” से “उच्चतम शिखर” को छूने की बात की गई है।

जैसे अगर हम क्रमशः तीनों पंक्तियों को समझें तो –

 प्रथम पंक्ति – असत्य से सत्य की ओर गतिमान होने की बात करती है और “असत्य” की यात्रा अगर उर्ध्वगामी हुई तो वह “सत्य” पर ही जाकर समाप्त होती है। असत्य प्रारंभिक और सबसे निम्न अवस्था है और “सत्य – असत्य की सबसे उच्चतम और अंतिम अवस्था”।

द्वितीय पंक्ति – “अंधकार से प्रकाश” की ओर गतिमान होने की बात करती है, अगर अंधकार से ऊपर उठना उठना है, उससे पार जाना है तो प्रकाश की ओर गतिमान होना होगा क्योंकि “प्रकाश” तक पहुंचकर ही “अंधकार” समाप्त किया जा सकता है तो अंधकार की अंतिम गति प्रकाश होगी और वही उसकी अंतिम और उच्चतम अवस्था है।

तृतीय पंक्ति – “मृत्यु से अमरता(अमरत्व)” तक पहुंचने की बात करती हैं क्योंकि अगर मृत्यु के पार जाना है तो “अमृत” को प्राप्त करना होगा। जीवन की अंतिम और उच्चतम अवस्था अगर मृत्यु है तो मृत्यु की “अंतिम और उच्चतम अवस्था” – “अमरत्व” होगी क्योंकि मृत्यु के पार तभी जाया जा सकता है जब मृत्यु के ऊपर की अवस्था को पा लिया जाये।

प्रत्येक पंक्ति में जीवन के प्रत्येक आयाम के उच्चतम शिखर को छूने की बात की गई है, प्रत्येक पंक्ति में वर्तमान अवस्था से और ऊंचा उठने की बात की गई है।

“शून्य से अनंत”(zero to infinity) तक की यात्रा की बात की गई है और “किसी भी संख्या का अंत अनंत(infinity) ही तो है”। अनंत प्रत्येक उपस्थित संख्या की उच्चतम अवस्था, उच्चतम शिखर है, उसके और ऊपर नहीं जाया जा सकता और उसी उच्चतम शिखर को छूने की बात यहां की गई है।

आज तक अधिकतर हम इन पंक्तियो को एक “प्रार्थना” के रूप में गाते या उच्चारित करते रहे हैं लेकिन अगर हम थोड़ा गौर करें तो पायेंगे कि “यही तो हमारे जीवन का स्वभाव है”। हम वर्तमान में जो भी हैं उससे कुछ और अधिक, कुछ और ऊपर होना चाहते हैं, हम ऊपर उठना चाहते हैं और यही हमारे जीवन में प्रतिक्षण घटता है कि हम कुछ और अधिक होना चाहते हैं, एक अपूर्णता का भाव हमारे मानस में सदैव बना रहता है और वही भाव हमें कुछ और अधिक हो जाने को प्रेरित करता है।

प्रत्येक श्लोक के बाद शांति की बात होती है क्योंकि प्रत्येक कार्य हमेशा मनुष्य के मन की शांति हेतु ही किये जाते हैं।

वर्तमान में हमारे पास जो भी है उससे हम हमेशा कुछ अधिक चाहते हैं और जब यह चाह भौतिक वस्तुओं (material goods) से ऊपर उठ जाती है या दूसरे शब्दों में जब “भौतिकवाद” (materialism) अपने उच्चतम शिखर तक पहुंच जाता है तब हमारी “आध्यात्मिक यात्रा” प्रारंभ होती है।

आज अगर भारत की आत्मा आध्यात्म में बसती है तो उसका एक ही कारण है कि भारत ने आर्थिक समृद्धि (economical prosperity) का “उच्चतम शिखर” बहुत समय पहले ही देख लिया था और भारत में फिर आत्मा और परमात्मा की खोज प्रारंभ हुई और तभी भारत “खोजियों और योगियों” की भूमि बन गया क्योंकि”सोने की चिड़िया” का अध्यात्मिक हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है, सोने की चिड़िया अध्यात्मिक हो ही जाएगी।

आज भारत में आध्यात्मिकता का उतना प्रचलन नहीं है उसका कारण दरिद्रता ही है और पश्चिमी देशों से लोग भारत आ रहे हैं जीवन के अन्य आयामों की खोज के लिए क्योंकि “भौतिकवाद” (materialistm) के उच्चतम शिखर (peak) ने उन्हें यह समझा दिया कि यह उनके प्रश्नों का उत्तर नहीं है, इसीलिए आज अमेरिका जितनी रुचि ध्यान में ले रहा है उतना भारत नहीं ले रहा है, भारत की अधिकांश जनता अभी दो जून की रोटी के संघर्ष में ही रत है पर शायद एक समय के बाद भारत में फिर आध्यात्मिकता का पुनरोदय होगा।

अब इस श्लोक को प्रार्थना की तरह लिया जाये या फिर जीवन के स्वभाव या कुछ और उच्च लक्ष्य के साधन हेतु प्रोत्साहन की तरह, पर बात तो एक ही कही जा रही है          “जीवन के सभी आयामों के उध्वर्गमन की”

आप सभी जीवन के सभी आयामों के उच्चतम शिखर को स्पर्श करें इसी कामना और प्रार्थना के साथ सबको नमन और दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं🙏🙏🙏🙏

*कुछ महीने पहले यह लेख लिखा था पर  प्रकाश के इस पर्व पर आज इसे आपसे साझा करना प्रासंगिक लगा इसलिए कर दिया, वैसे पेज पर इस तरह के विषयों पर लेख साझा नहीं किए जाते पर आज कर दिया है आशा है आपको यह भी पसंद आएगा।

जय सियाराम 🙏🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

बहुत दिनों से मन में यह विचार आ रहा था कि इस विषय पर लिखूं और मैं लिखना चाह भी रहा था लेकिन मैं उपयुक्त समय की प्रतीक्षा में था और मुझे लगता है कि अब अपनी बात रखने का उपयुक्त समय आ गया है।

बात असल में यह है कि “चिर निद्रा से ग्रसित हिंदू समाज” अभी भी अपने जागरण की चेष्ठा में लगा हुआ है और जाग चुके कुछ हिंदूओं में अब एक नया खेल शुरू हो चुका है

“जो हिंदू समाज के विरुद्ध जाता दिखे उसके बहिष्कार का खेल”

अच्छी बात है अगर आपको लगता है कि आप किसी की कोई फिल्म या वेब सीरीज़ नहीं देखना चाहते या कोई उत्पाद नहीं खरीदना चाहते तो आप बिल्कुल ऐसा कर सकते हैं, आपको पूरा अधिकार है कि आप अपने अनुसार चीज़ों को परखें और उन्हें खरा न पाएं तो बिल्कुल उनके प्रयोग को नकार दें।

लेकिन अभी क्या हो रहा है इस बात तो थोड़ा समझने का हम प्रयास करेंगे, अभी अक्षय कुमार की एक फिल्म आ रही है जिसका विरोध हो रहा है और उसके बहिष्कार की भी बात की जा रही है, यहां तक तो बात ठीक है क्योंकि आपको किसी फिल्म की कथा पटकथा, कहानी और पृष्ठभूमि ठीक न लगे तो लगे तो आप बिल्कुल वह फिल्म न देखें और अगर आपकी भावनाएं फिल्म के नाम को लेकर या किसी दृश्य को लेकर आहत हुईं हैं तो बहिष्कार भी कर सकते हैं और बहिष्कार की अपील भी कर सकते हैं यह आपका अधिकार है कि किसी अनुचित बात का विरोध कर सकते हैं।

हमारे यह सब करने के राजनीतिक या समाजिक लक्ष्य क्या हैं??

हमारे इस विरोध का और किसी चीज़ के बहिष्कार का अर्थ क्या है एवं इसका उद्देश्य क्या हैं??

 इसके क्या राजनीतिक अर्थ हैं??

हम ऐसा करके क्या संदेश देना चाहते हैं??

यही न कि हमारी सभ्यता संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों से अगर कोई छेड़छाड़ की जाएगी या उनका उपहास किया जाएगा तो हमसे किसी भी प्रकार के समर्थन की आशा न रखें।

बात ठीक भी है कि अनावश्यक रूप से हमारी संस्कृति का उपहास क्यों किया जाए?

फिर वास्तविक समस्या क्या है??

वास्तविक समस्या यह है कि हम फिल्म का विरोध तो कर ही रहे हैं लेकिन साथ में फिल्म के कलाकारों को भी लपेटे में ले रहे हैं।

अब आपका प्रश्न होगा कि अगर ऐसे काम करेगा तो लोगों का गुस्सा तो झेलना ही पड़ेगा।

चलिए ठीक है मान लिया कि आप अपना रोष प्रकट कर रहे हैं लेकिन अगर उस कलाकार की विचारधारा को देखा परखा जाए और समझा जाए तो मेरा प्रश्न आप सबसे यह है कि उस व्यक्ति की विचारधारा को ध्यान में रखकर मात्र उसके किए गए ग़लत कृत्य का विरोध होना चाहिए और उस पर रोष प्रकट करना चाहिए या फिर उस व्यक्ति के ही विरोध और बहिष्कार की घोषणा प्रारंभ कर देनी चाहिए??

 उसकी पूरी विचारधारा, जो कि आपकी ही विचारधारा के समान है उस विचारधारा के व्यक्ति को ही आप #फर्ज़ीराष्ट्रवादी जैसे ट्रेंड चलाकर उसकी राष्ट्र और समाज के प्रति विचारधारा पर ही प्रश्नचिन्ह खड़े कर देंगे और उसे राष्ट्रवाद की विचारधारा का नाटक करने वाला सिद्ध करने का प्रयास करने लगेंगे??

यही हमारी कमज़ोरी है हम लोगों को सर आंखों पर तो बिठा लेते हैं लेकिन एक ग़लती होने की बस देर है और हम उस व्यक्ति का हाथ ही छोड़ देते हैं।

सब जानते हैं कि अक्षय कुमार की क्या विचारधारा है या सुशांत सिंह राजपूत किस तरह का व्यक्ति था और विद्युत जामवाल किस तरह का व्यक्ति है।

गौ और गौमूत्र के नाम पर हल्ला मचाने वाले बहुत हैं पर इतना बड़े स्थान पर होने बावजूद कोई खुलकर अगर स्वीकार करता है कि हां मैं प्रतिदिन सुबह आयुर्वेदिक कारणों से गौमूत्र का सेवन करता हूं वो व्यक्ति है “अक्षय कुमार”।

जहां तक मेरा विचार है, आसान नहीं है किसी भी व्यक्ति का इतनी सहजता से यह स्वीकार करना कि कोई व्यक्ति प्रतिदिन गौमूत्र का सेवन करता है जबकि उस विषय से कई राजनीतिक पहलू भी जुड़ चुके हों क्योंकि सबको पता है कि इस बात को स्वीकार करने मात्र से ही आपका कितना मज़ाक उड़ाया जा सकता है, आपकी कितनी ट्रोलिंग की जा सकती है ऐसे में भी यह इतनी सहजता से ऐसी बात स्वीकार कर लेना‌ ही व्यक्ति की मंशा और विचारधारा को दर्शाता है और अपनी विचारधारा को सही सिद्ध करने के लिए कोई करोड़ों रुपए यूं ही दान नहीं कर देता न??

याद तो आप सबको होगा कि “पीएम केयर्स फंड” में पच्चीस करोड़ रुपए की राशि किसने दान की थी और वीरगति को प्राप्त हुए जवानों की सहायता के लिए सबसे पहले कौन आगे आता है और सरकार के साथ मिलकर “भारत के वीर” ऐप किसने बनाया और प्रत्येक संकट में देश के लिए कौन आगे आता है।

अब कोई सिर्फ यह सिद्ध करने के लिए तो करोड़ों रुपए तो खर्च नहीं कर देगा कि वह फलां फलां विचारधारा का व्यक्ति है।

सुशांत से भी जनता इस तरह की फिल्में करने से थोड़ी कट सी गई थी और अभी “विद्युत जामवाल” को भी ऐसी फिल्में दी जा रही हैं और अगर विद्युत जामवाल की विचारधारा देखेंगे तो वो कई ऐसी वीडियोज़ यूट्यूब पर साझा करते रहते हैं जिससे आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि वो प्राचीन भारतीय युध्द कला, प्राचीन भारतीय जीवन-शैली और प्राणीमात्र के प्रति प्रेम के पक्षधर हैं।

एक बात और है कि फिल्म में क्या दिखाया जा रहा है उसमें अभिनेता और अभिनेत्रियों का कोई भी हस्तक्षेप नहीं होता है, फिल्म शुरू होने से पहले ही उनसे

कानूनी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर ले लिए जाते हैं जिनका पालन न करने पर निर्माता उन पर कानूनी कार्रवाई भी करने के लिए स्वतंत्र होते हैं।

अब “लाल बहादुर शास्त्री” की रहस्यमय मृत्यु पर आधारित विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म “ताशकंद फाइल्स” को ही देख लीजिए जिसमें “नसीरुद्दीन शाह” ने भी काम किया है और “अजय देवगन” अभिनीत “तानाजी” फिल्म में “सैफ अली खान” ने भी काम किया है जिन्होंने एक इंटरव्यू में यह तो कहा था कि मैं नहीं मानता कि यह सही इतिहास है।

हम सब जानते हैं कि इन दोनों की विचारधारा किस तरह की है  लेकिन इन दो लोगों से उनकी विचारधारा के किसी भी व्यक्ति ने क्या यह कहा कि हम आज के बाद आपकी फिल्में नहीं देखेंगे??

एक भी व्यक्ति ने नहीं क्योंकि उनको साफ साफ पता है कि उनको क्या करना है, उनकी रणनीति क्या है उन्हें कोई उलझन नहीं है कि उन्हें क्या करना है।

इसीलिए मेरा मानना है कि इस तरह के मामलों में हम लोगों से अच्छी रणनीति और स्थिति तो “वामपंथियों और अर्बन नक्सलियों” की है वो कम से कम उनकी विचारधारा के लोगों का हाथ तो नहीं छोड़ते।

क्या हमने कभी यह सोचा है कि मात्र एक दो ग़लत फिल्में चुन लेने से अगर हम अपनी ही विचारधारा के अभिनेताओं – अभिनेत्रियों का बहिष्कार कर कर के उनका काम धंधा चौपट कर देंगे तो इतने बड़े मंच “हिंदी फिल्म उद्योग” में हमारी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग तो बचेंगे ही नहीं और हम एक बहुत बड़ा मंच भी खो देंगे।

जिस गति से हम राष्ट्रवादी विचारधारा के लोगों के भी बहिष्कार की बात कर रहे हैं उस हिसाब से हमारे साथ अंत में कोई भी खड़ा नहीं दिखेगा और पूरी विचारधारा ही खंड खंड हो जाएगी।

यह बात सिनेमा के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी लागू होती है।

एक बात हमेशा हमें याद रखनी चाहिए कि हमारे घर का बेटा यदि कोई ग़लती करता है तो उसे डांट डपट कर समझाते हैं न कि उसे सीधा घर से निकाल देते हैं।

फिल्म पर अपना रोष प्रकट कीजिए लेकिन उन लोगों का कम से कम बहिष्कार मत कीजिए जो देशहित की विचारधारा रखते हैं।

अगर बात कड़वी लगी हो तो क्षमा करें पर यह बात कहना मुझे आवाश्यक लगी इसीलिए कह दी।

इस पर थोड़ा विचार करें और इसे मानना या मानना मैं आप पर छोड़ता हूं 🙏🙏🙏

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

पिछले दिनों अमीश त्रिपाठी लिखित शिवत्रयी (shiva Trilogy) पढ़ रहा था और उसके दूसरे भाग “नागाओं का रहस्य” (the secret of nagas) में कुछ पात्र

“मेंढक और पानी सिध्दांत” पर चर्चा कर रहे होते हैं कि यह सिध्दांत कहता है कि “अगर एक मेंढक को ठंडे पानी के पात्र में डाला जाए तो वह बैठा रहेगा लेकिन अगर उसी मेंढ़क को गर्म पानी के पात्र में डाला जाए तो मेंढक तत्क्षण उछलकर पात्र से बाहर कूद जाएगा।”

“लेकिन अगर उसी मेंढ़क को ठंडे पानी से भरे पात्र में डालकर पात्र को गर्म किया जाए तो पानी धीरे-धीरे गर्म होगा और मेंढक उछलकर पात्र के बाहर नहीं कूदेगा वरन् पानी के बढ़ते तापमान के अनुकूल अपने शरीर का तापमान ढ़ालता जाएगा और अंततः पानी बहुत अधिक गर्म हो जाने पर मेंढक मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा।”

 भारत की “धर्मनिरपेक्षता” भी कुछ इसी तरह की है।

और ऊपर दिए गए सिध्दांत से जोड़कर अगर भारत में “राजनेताओं द्वारा रचित तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” को समझा जाए

तो यह बताना मुश्किल नहीं होगा कि “यहां मेंढक कौन है और पानी कौन है और पानी कौन गर्म कर रहा है??”

आखिर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ क्या है??

सिर्फ इतना ही न कि कोई भी व्यक्ति अपने धर्म को माने उसे कोई रोक नहीं सकता और अगर आप किसी भी अन्य धर्म के व्यक्ति को उसके धर्म में विश्वास रखने से नहीं रोकते तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं और अगर पूरे राष्ट्र का कानून ही यही कहता है तो वह राष्ट्र एक “धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र” है।

लेकिन यहां कुछ अलग ही परिभाषा गढ़ दी गई कि “फलाने मज़हब” का व्यक्ति अगर कुछ ग़लत भी करता है तो हमें उसका विरोध नहीं करना है क्योंकि वो “अल्पसंख्यक” है और एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के नागरिक का कर्तव्य है कि अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति को दुलार पुचकार कर रखें।

आपको सिखाया गया कि “आतंक का कोई धर्म नहीं होता”

अच्छी बात है, चलिए यह भी मान लेते हैं लेकिन ऐसा मानने के लिए लोगों से आग्रह करने का मात्र यही उद्देश्य होना चाहिए कि किसी “मज़हब विशेष” के निर्दोष लोगों के प्रति (जिनका आतंकी घटनाओं से कोई लेना-देना नहीं है) अन्य धर्मों के लोगों के मन में घृणा या नफरत न घर कर जाए और उन्हें भेदभाव का सामना न करना पड़े और लोग आपके इस विचार को समर्थन भी दे देते हैं कि “आतंक का कोई धर्म नहीं होता” लेकिन क्या इसका अर्थ यह होता है कि कि उन आतंकी घटनाओं के पीछे के कारणों पर चर्चा ही न हो और चूंकि घटना का कारण ही “ग़लत मज़हबी शिक्षा” हो तो क्या उन लोगों की जवाबदेही तय नहीं होनी चाहिए जो कि समुदाय विशेष के मज़हबी शिक्षा केन्द्रों का नेतृत्व करते हैं??

अगर कोई जिहादी आतंकी भरी भीड़ में “मज़हबी नारे” लगाकर फट जाता है तो क्या इस पहलू पर चर्चा नहीं होनी चाहिए कि हिंसा करते समय और निर्दोष लोगों की हत्या करते समय “जिहादी – आतंकी” मज़हबी किताबों में इस हिंसा के समर्थन में तर्क कैसे ढ़ूंढ लेते हैं???

 किसी का गला काटते समय आतंकी ज़ोर से “अरबी ज़ुबान” में कौन से शब्द चीखकर किसी का गला काटने को न्यायसंगत और ईमान वाली बात सिद्ध करने का प्रयास करता है??

अगर इतनी हिंसा करने बाद भी कोई व्यक्ति अपराध बोध से ग्रसित नहीं होता वरन् हिंसा करते समय कुछ “मज़हबी वाक्यों और नारों” को बार बार चीखकर यह दर्शाने का प्रयास करता हो कि यह तो न्यायसंगत है तो क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए कि इतनी हिंसा को भी उनकी ही दृष्टि में न्यायसंगत सिध्द कर देने की प्रेरणा और शब्द उनके पास कहां से आ रहे हैं???

जब किसी व्यक्ति द्वारा अन्य किसी व्यक्ति को जातिगत आधार पर प्रताड़ित किया जाता है या उस व्यक्ति को जातिगत आधार पर हिंसा का सामना करना पड़ता है तो बिना लाग-लपेट के उस घटना के कारण यानि कि “जातिगत असमानता” पर बात होती है क्योंकि यह हमारे समाज की एक कुरीति है और इसे दूर होना चाहिए तो फिर “बम विस्फोट” जैसी इतनी बड़ी हिंसात्मक घटनाओं के कारण पर क्यों चर्चा नहीं होनी चाहिए??

हमें तो “धर्मनिरपेक्षता की गढ़ी हुई परिभाषा” पकड़ा दी गई जो कि इनके एजेंडे को पूरे समाज में चलाती और पूरे उसी “तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” का चोला ओढ़ाकर प्रश्न उठाने से रोकती।

और हुआ भी यही, सारे लोग “धर्मनिरपेक्ष” हो गये और प्रश्न उठाना बंद कर दिया लेकिन अब कुछ समय से ” तथाकथित धर्मनिरपेक्षता” की धूल धुलती जा रही है और लोग धर्म निरपेक्ष से हिंदू होते जा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि भाई हमने ऐसा किया क्या है कि हम पर इतने बम फट रहे हैं???

इसीलिए अब तकलीफ़ शुरू हो चुकी है और होगी ही।

हमने एक फिल्म नायक को शंकरजी की प्रतिमा के पीछे से शंकर जी की आवाज़ बनकर नायिका को लुभाते देखकर सिनेमाघरों में तालियां पीटीं और कहा यह सब तो चलता है।

और अब हमें उन्हीं सिनेमाघरों में बैठकर शंकरजी को बाथरूम में भीगते देखना पड़ रहा है लेकिन आश्चर्य!!!!!

हम तब भी तालियां पीट रहे थे और कह रहे थे कि यह सब तो चलता है।

आंच पर चढ़े पानी के पात्र में मेंढक हैं न भाई…..

“धर्मनिरपेक्षता के पानी” के तापमान के अनुसार अपने को धीरे-धीरे ढ़ाल ही चुके हैं तो दिक्कत क्या है तालियां ही पीटेंगे।

अब मेंढक तापमान झेलने के आदी हो गये हैं तो उनको सोना बेचने वाले और डिटर्जेंट पाउडर वाले भी ज्ञान देने लगे हैं क्योंकि मेंढ़क अब सब झेल लेंगे।

लेकिन अब बहुत लोग मेंढकों को जगाने आ गये हैं अब ये मेंढक उछलकर पात्र से बाहर कूदेंगे और मानव रूप धारण कर कुछ प्रश्न खड़े करेंगे या वहीं उबल जाएंगे ये वो मेंढ़क ही जाने।

हम तो पात्र से बाहर उछल आए अब अपनी बारी है कि दूसरों को बाहर निकालने की।

और यहीं नहीं रुकना है….

हिम्मत तो अपने अंदर इतनी लाना कि जैसे वो दूसरे धर्मों के लोगों से बेझिझक “आदाब अर्ज़” करते फिरते हैं और अब तक हम भी उन्हें देखकर आदाब अर्ज करते फिरते थे, उसी तरह हम भी अब किसी को भी देखकर “जयरामजीकी” बोलने से पहले एक क्षण को भी झिझकें न….

आगे मिलूंगा किसी और मुद्दे के साथ तब के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

ये मोदी – योगी क्या कर रहे हैं??

आर एस एस, बजरंग दल और विश्व हिन्दू परिषद् वाले कहां हैं और क्या कर रहे हैं??

उस राज्य में तो भाजपा सरकार है फिर क्या हो रहा है??

इस तरह की बातें अभी आप सबको बहुत सुनने को मिल रही होंगी लेकिन मैं इनमें से एक भी बात आपसे नहीं कहना चाहता।

बल्कि मैं तो आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आप क्या कर रहे हैं??

अब आप कहेंगे कि हम क्या कर सकते हैं?? हम तो उस राज्य में भी नहीं रहते और न ही उस क्षेत्र में, जहां यह घटना हुई है।

तो मेरा प्रश्न आपसे यह है कि अगर आपके यहां, आपके क्षेत्र में भी यह घटना हुई होती तो आप क्या कर लेते या क्या कर सकते थे??

है कोई उत्तर आप सबके पास??

आपके क्षेत्र तो छोड़िए, आपके मोहल्ले या घर में ही हो जाता तो आप क्या कर लेते??

मुझे तो नहीं लगता कि आपके पास कोई उत्तर होगा।

 फिर मोदी – योगी, आर एस एस वाले क्या कर रहे हैं??

क्यों चुना है हमने इन्हें??

तो वो क्या करेंगे ये मैं आपको बता देता हूं –

मोदी और योगी या इनके अपने राजनैतिक दल के मुख्यमंत्री  या जनप्रतिनिधि सब के सब “संवैधानिक पदों” पर हैं तो “संविधान” की सीमा में रहकर ये लोग सिर्फ इतना कर सकते हैं कि न्याय दिलाने की कार्यवाही को थोड़ी गति दे सकते हैं, जल्दी से जल्दी आरोपियों को गिरफ्तार करवा सकते हैं और ज़्यादा से ज़्यादा अच्छे से अच्छा सरकारी वक़ील लगाकर आरोपियों को फांसी दिलाने की पैरवी न्यायालय में कर सकते हैं।

लेकिन ये सब कब होगा??

आपकी बेटी के उसकी कनपटी पर गोली खाने के बाद…

तो आप क्या चाहते हैं???

बेटी की कनपटी उड़ा देने वाले आरोपियों को फांसी???

या फिर….

जीती जागती अपनी बच्ची???

सबको अपनी बेटी ही चाहिए न??

तो फिर बेटी को जीवित बचाने के लिए आपकी तैयारी भी वैसी होनी चाहिए,

 और इसलिए कि अभी आपने कुछ ठीक लोगों को सत्ता दे दी है तो अभी आपकी तैयारी सिर्फ इतनी है कि आप  सिर्फ अपराधियों को उचित दण्ड दिला सकते हैं, अपराध होने से नहीं बचा सकते। उसके लिए अलग तैयारी लगेगी।

और चूंकि अपराध सिर्फ इसलिए हुआ है कि आपकी बेटी हिंदू है और धर्म परिवर्तन न करके हिंदू ही रहना चाहती है तो फिर यह हमला किसी तोमर की बेटी पर नहीं “हिंदू समाज” की बेटी पर हुआ है, हमारी और आपकी बेटियों पर हुआ है और अगर मुसीबत पूरे “हिंदू समाज” के सामने खड़ी है तो हमें लड़ना भी पूरे हिंदू समाज के रूप में ही चाहिए।

तो हिंदू समाज के रूप में आपकी तैयारी क्या थी??

और अब भी क्या है??

कुछ भी नहीं।

लेकिन होनी चाहिए और क्या तैयारी होनी चाहिए??

चलिए इस पर भी चर्चा कर लेते हैं।

सबसे पहले आपके घर से ही शुरू करते हैं –

सर्वप्रथम आप स्वयं को देखें कि घर में आपका अन्य सदस्यों से कैसा संवाद है?

अगर आप घर के मुखिया हैं तो इस बात का आप ध्यान रखें कि आपके और घर के सदस्यों के बीच में, सभी सदस्यों के बीच आपस में संवाद (communication)बना रहे, संवादहीनता (communication gap)की स्थिति बिल्कुल भी न बने।

भाई, बहन, माता, पिता, सबके बीच संवाद अवश्य हो उससे यह लाभ होगा कि परिवार के सदस्यों का और विशेषकर के बेटियों का अपने माता-पिता, भाई बंधुओं पर एक विश्वास बन जायेगा कि किसी भी प्रकार की विकट परिस्थितियों में वो अपने बड़ों को अपनी समस्या बता सकतीं हैं और उन्हें ऐसा करने पर डांट नहीं अपितु सहायता मिलेगी।

आप सबने देखा होगा कि बच्चों की समस्याएं और विशेषकर बेटियों की समस्याएं मां-बाप या भाइयों को भले ही न पता हों लेकिन उनके मित्रों या सहेलियों को अवश्य पता होती हैं क्योंकि उनके बीच एक परस्पर संवाद (communication) बना रहता है जो कि घरवालों के साथ नहीं होता है और समस्या बता देने पर सहयोग की आशा से अधिक डांट फटकार का डर होता है और हमारी इस कमी के कारण हमारी बेटियां इन जिहादियों का शिकार हो जाती हैं।

अब आता है अगला चरण –

अपने घर में परस्पर संवाद ठीक करने के बाद अब आप अपने मोहल्ले के सभी घरों के मुखिया से संपर्क करें और जो आपने अपने घर में किया है वही उन सब लोगों को अपने-अपने घरों में आचरण करने को कहें।

अपने घर के अगल बगल वाले घरों के मुखिया को साथ लेकर मोहल्ले के अन्य घरों में भी जाएं और अपनी बात लोगों को समझाएं।

अब अगर आप कहेंगे कि वो हमारे मोहल्ले के फलां फलां लोग तो धर्मनिरपेक्ष हैं और कांग्रेस जैसे दलों का समर्थन करते हैं उनको कैसे समझाएं तो मैं आपको एक बात कह दूं कि भले ही वो किसी भी दल का समर्थन करें पर अपनी बेटियों की सुरक्षा चिंता सभी करते हैं और अगर आप अपनी बात कुछ इस तरह से रखेंगे तो कि जिहादी कोई कांड करने से पहले यह नहीं देखते कि आप किस दल के समर्थक हैं??

आप जिस भी दल को समर्थन देना चाहें दीजिए लेकिन इस काम में हम सबके साथ चलिए।

धीरे-धीरे करके शहर के हर एक मोहल्ले तक अपनी बात पहुंचाइए, अपने परिचितों को भी यह सब बातें अपनाने और इस योजना को अपने-अपने गली मोहल्ले में मूर्तरूप देने का आग्रह कीजिए।

अब इससे यह लाभ होगा कि जब ऐसी कोई समस्या अगर उत्पन्न होती है तो परिवार में परस्पर संवाद और आपसी समझ (understanding) होने के कारण बेटियां अपनी समस्या घर पर बताएगीं और चूंकि पूरे मोहल्ले में इसी तरह की व्यवस्था है तो कम से कम पूरा मोहल्ला आपके साथ खड़ा होगा, जहां मात्र एक परिवार इस समस्या से लड़ता और वो भी बात हाथ से निकल जाने के बाद, अब पूरा मोहल्ला इस समस्या से लड़ेगा वो भी समय पर समस्या पता चलने के साथ।

इसके अतिरिक्त अपने बच्चों को अपने धर्म के बारे में समझाने के साथ साथ उन्हें अपने इस धर्म में मिलने वाली स्वतंत्रता का महत्व भी समझाएं, उन्हें समझाएं कि धर्म तो वही श्रेष्ठ है जो आपको स्वतंत्रता दे, मुक्ति दे, सम्मान दे और अपने हिसाब से जीवन जीने का अधिकार दे जैसा कि वो अभी जी रहे हैं।

जब वो यह समझेंगे तो संकुचित सोच वाले मज़हबों के लोगों की ओर आकर्षित ही नहीं होंगे और ऊपरी चीज़ों से आकर्षित होने के बजाय स्वतंत्रता और अधिकारों को अधिक महत्व देंगे जो कि महिलाओं को दर्जन भर वस्त्रों में लपेट कर रखने वाले संकुचित सोच वाले लोगों के मज़हब में नहीं मिलेगी।

और रही बात आत्मरक्षा की तो वो सिर्फ बेटियों को ही नहीं आपको भी आनी चाहिए एवं आत्मरक्षा के साधन भी आपके घरों में होने चाहिए।

 आपके दिमाग़ में सोच बिल्कुल साफ होनी चाहिए कि अगर ऐसी स्थिति बनती है कि आप पर कोई संकट आ गया है तो आप क्या करेंगे?? सिर्फ आत्मरक्षा या सामने वाले “असामाजिक तत्व” को अपने वार से सीधी मुक्ति ही प्रदान कर देंगे??

उस “जिहादी” को मुक्ति प्रदान कर देंगे तो आप कारागृह में जाएंगे लेकिन कम से कम जीवित रहेंगे और आपकी याद आने पर आपके प्रियजन आपसे मिल जुल तो सकेंगे।

यह बात साफ रखें और बच्चों – बच्चियों को भी साफ निर्देश दें, कोई दुविधा न पालें और न पालने दें क्योंकि कानून के दायरों में रहकर उन लोगों से लड़ा जाता है जो “कानून के दायरों” को मानते हों।

अब अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आप अब नेताओं और पुलिस के भरोसे रहना छोड़ दीजिए, ये सब आपकी सहायता आपकी बेटी की कनपटी पर गोली पड़ने के बाद कर पाएंगे, भले ही वो किसी भी विचारधारा के हों लेकिन अपनी बेटी  कनपटी पर गोली पड़ने से बचाने का बीड़ा तो आपको ही उठाना चाहिए, उठाना पड़ेगा क्योंकि

“एक समाज के रूप में आपकी तैयारी बहुत महत्वपूर्ण है”।

जो मुझे कहना था मैं कह चुका,

विचार कीजिए और  आपको बात ठीक लगे तो करके देखिए और देखिए क्या बदलाव आता है और अगर इन उपायों में कुछ कमी लगी हो या यह प्रभावी न लगे हों तो आप कोई उपाय सोचिए लेकिन कृपा करके सरकारों और पुलिस के भरोसे मत बैठिए क्योंकि उनके लिए हर एक अपराध रोकना संभव नहीं है।🙏🙏🙏

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

अभी राज्यसभा में फसल के क्रय विक्रय के नियमों से संबंधित बिल प्रस्तुत किए गए और उस पर विपक्ष द्वारा जो हंगामा किया गया और जो “अति आक्रामकता” दिखाई गई, उपसभापति का माइक तोड़ने का प्रयास किया गया, उसे देखकर मुझे “विवेक अग्निहोत्री” द्वारा निर्देशित, “अर्बन नक्सलियों” पर आधारित एक फिल्म “बुध्दा इन ए ट्रॉफिक जाम” के दृश्य का स्मरण हो आया।

फिल्म की कथा कुछ ऐसी है कि “जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय” अर्थात् “जेएनयू” की तरह एक “आज़ादी – आज़ादी” का जाप करने वाले विद्यार्थियों और उनको इस “आज़ादी – आज़ादी” के जाप का दिशानिर्देश देने वाले विद्वानों (प्रोफेसरों) से परिपूर्ण एक विश्वविद्यालय होता है।

इसमें एक “कॉमरेड प्रोफेसर” जिसका किरदार “अनुपम खेर” ने निभाया है वह एक दृश्य में फिल्म के छोटे शहर से आने वाले एक सीधे साधे “युवा नायक” से कहता है कि प्रोफेसर की पत्नी जो “गैर लाभकारी संस्था” (एनजीओ) आदिवासियों के उत्थान के लिए चलाती है जिसके माध्यम से वो आदिवासियों के द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तनों की और उनकी बनाई कलाकृतियों की नीलामी और विक्रय करती है वह संस्था “धन के अभाव” में बंद करनी पड़ सकती है इसीलिए आदिवासियों को उनके श्रम का उचित मूल्य सके ऐसी योजना “युवा नायक” द्वारा बनाई जाए क्योंकि नायक “मैनेजमेंट” में ही स्नातक (degree) कर रहा है।

इस तरह की योजना पर काम करने के लिए नायक को कुछ दिन का समय दिया जाता है।

कुछ समय योजना पर काम करने के पश्चात युवा नायक, प्रोफेसर और कुछ कंपनियों के प्रतिनिधियों (representatives) के बीच एक बैठक होती है।

जिसमें नायक अपनी योजना सबके सामने प्रस्तुत करता है कि अगर एक ई कॉमर्स वेबसाइट बनाई जाए और उस पर आदिवासियों द्वारा निर्मित सामाग्री की तस्वीरें चस्पा (upload) कर उनके मूल्य और अन्य विवरण उस पर लिख दिया जाए और उस चीज़ को क्रय करने (खरीदने) का भी विकल्प हो तो आदिवासियों को उनकी मेहनत का पूरा-पूरा लाभ मिल जायेगा और “बिचौलियों” (middleman) का कोई काम नहीं रह जाएगा जिससे बीच में कोई पैसा नहीं खा पाएगा।

नायक की “बिचौलियाहीन योजना” (no middleman strategy)  सुनकर ही वामपंथी प्रोफ़ेसर उठ खड़ा होता है और कहता है कि

 “मैं तुम्हें यह नहीं करने दूंगा और तुम्हें पूंजीपतियों को लाभ नहीं पहुंचाने दूंगा, तुम पूंजीपतियों के एजेंट की तरह कार्य कर रहे हो”

 और नायक के प्रस्ताव को अस्वीकृत करके मीटिंग छोड़कर चला जाता है।

नायक बहुत हैरान होता है कि वह तो समाधान की बात कर रहा था फिर भी उस पर अजीबोगरीब आरोप क्यों लगाए गए और इस तरह से अति आक्रामकता उसके प्रस्ताव के प्रति क्यों दिखाई गई???

उस वामपंथी कॉमरेड प्रोफेसर के विरोध का कारण साफ था कि अगर किसी वर्ग के अधिकारों की बात करने वाले व्यक्ति की कोई भी योजना (भले ही है योजना समस्या के समाधान का प्रयास ही क्यों न हो) को भी बिल्कुल ही नकार देगा क्योंकि वो योजना उसके वामपंथी एजेंडे के अनुरूप नहीं है, “समाधान भी उसी रास्ते से आना चाहिए जो रास्ता उसे ठीक लगता है”

 वो तो यही चाहता है कि क्रांति हो, आंदोलन हो, हिंसा हो, पूरा तंत्र बदले और साम्यवादी शासन स्थापित हो और फिर जाकर ही कोई समाधान आए।

“साम्यवाद”(communism) के अतिरिक्त अगर कोई दूसरी योजना, कोई दूसरी विचारधारा या कोई दूसरा मार्ग अगर समाधान की तरफ जाता है तो भी उसका उतनी ही आक्रामकता से विरोध किया जाएगा जितना कि “स्वयं से विपरीत विचारधारा” का किया जाता है।

“समाधान भी चाहिए तो हमारे मार्ग से आए और अगर दूसरे मार्ग से समाधान आया तो उस मार्ग को ही समाप्त कर दिया जाएगा”

 “वामपंथियों के लिए समाधान नहीं, उनकी विचारधारा ही हमेशा सर्वोपरि रही है”

इस तरह समाधान ही उनका शत्रु बन गया है अगर वह किसी विपरीत विचारधारा वाले व्यक्ति के द्वारा सुझाया गया हो।

इस फिल्म के उस “प्रोफेसर की मनोदशा” ही “राज्यसभा के उन सांसदों की मनोदशा” है जो कि हिंदी फिल्म के छोटे मोटे गुंडे बदमाशों की तरह तोड़फोड़ करने में लगे हुए थे।

विपक्ष प्रश्न कर सकता है, प्रश्न‌ करना‌ विपक्ष का अधिकार है, पर जो राज्यसभा में हुआ वो चर्चा या विरोध तो बिल्कुल नहीं लगा वरन् गुंडागर्दी ज़्यादा लगी और विरोध में इनकी “अति आक्रामकता” मुझे तो थोड़ी खटक गई और उन सांसदों की मंशा पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े करती है।

अगर आप इस विचारधारा के लोगों और उनको मनोभावों को और अच्छे से समझना चाहें तो विवेक अग्निहोत्री द्वारा निर्देशित फिल्म “बुध्दा इन ए ट्रॉफिक जाम” एक बार अवश्य देखें जो कि यूट्यूब पर उपलब्ध है।

आगे मिलेंगे किसी अन्य लेख के साथ तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

आज बात करते हैं एक राजनीतिक दल में “अध्यक्ष पद” को लेकर चल रही उठापटक की…

उठापटक भी उन लोगों की जिन लोगों ने राजकुमार को राजकुमार मानने से मना कर दिया और “फुल टाइम लीडरशिप” एवं “फील्ड में सक्रिय नेता” की मांग के साथ एक तरह से राजकुमार को अध्यक्ष पद के सिंहासन पर बैठाने को लेकर अपनी अदृश्य सी पर बड़ी ही पारदर्शी असहमति प्रदान की।

अब भला राजमाता तो राजमाता ठहरीं और राजकुमार को राजकुमार मानने से कोई मना सका है क्या आज तक???

तो फिर वर्तमान में राज्यसभा में विपक्ष के नेता एवं पार्टी के अन्य और प्राचीन निष्ठावान नेताओं की प्सेरमुख पदों से  छुट्टी हो गई है और साथ ही कथित रूप से “राजकुमार” द्वारा उन्हेें और “चिट्ठी-पत्री बम” फोड़ने वाले अन्य नेताओं को “बीजेपी का एजेंट”  शीर्षक से सम्मानित किया गया।

उसके पश्चात् राजमाता की हर बात पर हां में सर हिलाने वाले लोकप्रिय और राजमाता की “जी हुज़ूरी” की फील्ड में फुल टाइम सक्रिय रहने वालों को मैदान में सजा दिया गया है।

अब जिस तरह का “क्षेत्ररक्षण” (fielding) राजमाता द्वारा जमाया गया है, राजकुमार का अध्यक्ष पद के सिंहासन पर विराजमान होने का रास्ता साफ हो चुका है।

तो जनता को इससे क्या समस्या होनी चाहिए???

कई लोग इस बात में रस लेंगे कि “अब किसी व्यक्ति को चमचे की उपाधि सोशल मीडिया पर प्रदान कर सकेंगे” लेकिन मुझे इस बात में इसीलिए रस नहीं है क्योंकि एक इतना पुराना  राजनीतिक दल जो कि अभी लोकसभा में एक “प्रमुख विपक्षी दल” भी है,

उस राजनीतिक दल के नेतृत्व की भारत को लेकर सोच, उसका भाव क्या है??

उसकी भारत को लेकर दृष्टि, उसका विज़न (vision) क्या है??

उस नेतृत्व ने भारत को कितना जाना है और भारत के प्रति उसकी सोच क्या है??

क्या भारत के एक बहुसंख्यक वर्ग और उनके विचारों में कोई तालमेल है या नहीं??

क्या वो भारत का दर्शन समझ सके हैं या नहीं??

अब इन सारे प्रश्नों को सुनकर  आपके मस्तिष्क में इनका पहला और अंतिम उत्तर “नहीं” में आता है तो फिर किसी को “चमचा” बुलाने में और राजकुमार पर चुटकुले सुनने सुनाने में रस कम ही लें तो बेहतर है।

आपको ऐसा कहने का कारण मैं थोड़ा स्पष्ट कर देता हूं –

ये बात तो बिल्कुल स्पष्ट है और सभी इस बात से सहमत होंगे कि जिस व्यक्ति को वर्तमान में देश के प्रमुख विपक्षी राजनीतिक दल का “मुखिया” बनाया जाना है वह निःसंदेह ही एक “अयोग्य” व्यक्ति है और अयोग्यता को जब सर पर बिठा लिया जाता है तो अयोग्यता के समक्ष मात्र “जी हुज़ूरी” करके और सर झुका करके देश के हर क्षेत्र में इतनी  अधिक सेंधमारी की जा सकती है कि हम और आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते,

अयोग्यता तो मात्र “जी हुज़ूरी” का आनंद लेने में व्यस्त रहती है और “भारत विरोधी ताकतों” को अपने लक्ष्य पूर्ण करने के लिए मात्र एक ही काम करना होगा – उस अयोग्य व्यक्ति के समक्ष “जी हुज़ूरी” क्योंकि अयोग्य व्यक्ति सिर्फ इसी में रुचि रखता है कि अधिक से अधिक लोगों का सर उसके समक्ष झुका रहे।

अब स्वयं के समक्ष उन “झुके हुए मस्तिष्कों” की योजनाएं क्या हैं? उससे “अयोग्यता” को कोई सरोकार नहीं है, अयोग्यता तो गुलामी करवाने में रस लेती है।

और इसका मूल्य चुकाता है हमारा “राष्ट्र”।

अब आप कहेंगे कि अभी तो ये विपक्ष में हैं क्या ही कर लेंगे ये??

तो एक बात मैं आपके ध्यान में ला दूं कि अगर किसी राजनीतिक दल में किसी “अयोग्य व्यक्ति” को कोई उच्च और शक्तिशाली पद प्रदान कर दिया जाए तो उसके समक्ष वही लोग सर झुकाएंगे जो जिनकी “विचारधारा ही देश विरोधी” है क्योंकि जो देश हित चाहते हैं वो किसी भी पद पर “अयोग्य व्यक्ति” के आसीन होने का समर्थन नहीं करेंगे।

अब “अयोग्यता की छांव” में बैठे ये “देश विरोधी” लोग देशहित में होने वाले हर अच्छे निर्णय का अनावश्यक विरोध कर देश का समय नष्ट करेंगे और ऐसे निर्णय लेने पर बाध्य करेंगे जो इनके हित में हों।

उदाहरण के लिए धारा ३७० (article 370) हटाने और सीएए का विरोध बिल्कुल ही अनावश्यक था जिसमें देश की कितनी ऊर्जा और समय नष्ट हुआ और ये सब इनके विपक्ष में रहने के बाद ही हो रहा है।

और अगर ग़लती से ये लोग अब अगर सत्ता में आ जाते हैं तो क्या होगा??

 आज यह “अयोग्यता” किसी राजनीतिक दल की छाती पर बैठी है और कल देश छाती पर बैठ गई तो??

अब आप कहेंगे कि जीतेंगे ही नहीं तो कैसे बैठेंगे???

तो फिर ज़रा इतिहास याद कीजिए और बताइए कि –

“मोहम्मद गौरी की पृथ्वीराज चौहान से कोई टक्कर थी क्या”???

लेकिन क्या हुआ??

एक भूल हुई नहीं कि भारत की धरती ने सदियों की प्रताड़ना देखी और अगर जनता से क्रोध में आकर कोई भूल हो गई जो कि होती ही रहती है तो क्या क्या होगा ये हम और आप अनुमान भी नहीं लगा सकते।

मेरा तो यह मानना है कि अयोग्यता का तो हमारे विकल्पों में स्थान ही नहीं होना चाहिए।

आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि “प्राइम टाइम” वाले “तथाकथित निष्पक्ष पत्रकार” और “अर्बन नक्सली” इस “अयोग्य व्यक्ति” के देश के प्रमुख राजनीतिक दल के सिंहासन पर आसीन होने को लेकर कोई प्रश्न क्यों नहीं उठाते??

वरन् इस “अयोग्यता के पर्याय” व्यक्ति को स्टूडियो में आमंत्रित कर इस तरह से सवाल जवाब करते हैं कि मानो आकाश से कोई “बुध्दिजीवी” उतर आया हो।

इसका कारण साफ है कि इनके लक्ष्य ही बिल्कुल अलग हैं। (अर्बन नक्सली चाहते क्या हैं यह तो मैं आपको पिछले लेखों में काफी कुछ बता चुका हूं।)

वास्तव में होता यह है कि यह लोग उच्च पद पर “अयोग्यता” की “जी हुज़ूरी” करके  उसका संरक्षण प्राप्त करके अपना एजेंडा चलाते रहते हैं क्योंकि जिस “अयोग्य व्यक्ति” को इतना भाव दिया जा रहा है वह मस्तिष्क से भी बिल्कुल रहित है और बुद्धि तो उसको छू भी न सकी है इसी कारण वह इनके एजेंडे का अनुमान भी न लगा सकेगा वो तो बस उनके “झुके हुए सर” देखकर प्रसन्न होता रहेगा।

 जब यह अयोग्यता किसी  देश के सर पर थोप दी जाती है तो उस देश की जनता भी एक तरह की “हीन भावना” से ग्रसित हो जाती है और उसे राजनीति में एक प्रकार की “अरुचि” उत्पन्न हो जाती है।

और २०१४ (2014) से पूर्व एक “प्रधानमंत्री की बेबसी” के कारण यही तो होता रहा था।

२०१४ के बाद युवा भी देश के नेतृत्व के निर्णयों में रुचि लेने लगे हैं और अपने विचार रखने लगे हैं जो कि पहले राजनीति से घृणा करते थे।

अगर “योग्य व्यक्ति” नेतृत्व करता है तो जनता में एक नई चेतना आ ही जाती है।

मेरा तो यह मानना है कि बजाय “चमचा” बोलने आपका उस राजनीतिक दल के हर एक कार्यकर्ता से यही प्रश्न होना चाहिए कि आप किसी योग्य व्यक्ति को अध्यक्ष पद देने की मांग क्यों नहीं उठाते??

राजनीतिक दल हर एक कार्यकर्ता का होता है न कि किसी एक “परिवार” का….

आप यही उनसे पूछें ताकि योग्य और सक्रिय व्यक्ति को अध्यक्ष पद पर आसीन करने की मांग के साथ हर एक कार्यकर्ता की चिठ्ठी “दस जनपथ” पहुंचे न कि सिर्फ गिनती के दो चार नेताओं की।

और शायद  इससे यह लाभ हो जाए कि इस “प्राचीनतम राजनीतिक दल” को भी एक “भारतीय मन” वाला भारत के हित के बारे में सोचने वाला नेता मिल जाए और अनावश्यक रूप से देशहित के निर्णयों में भी होने वाला टकराव समाप्त हो जाए‌ क्योंकि एक आम कार्यकर्ता की भी वही भाषा होती है जो कि राजनीतिक दल के नेतृत्व (leadership) की होती है।

और रही बात इस “प्राचीनतम राजनीतिक दल” के प्रति लोगों की घृणा की तो उस पर मैं एक ही बात कहूंगा कि अगर सुभाष चन्द्र बोस, सरदार वल्लभ भाई पटेल और लाल बहादुर शास्त्री जैसे लोग जब भी किसी भी राजनीतिक दल से निकलकर आए हैं तो उनको बिना राजनीतिक दल देखकर जनता हमेशा ही अपनाया है और सम्मान दिया है…

ये मेरे विचार हैं, हो सकता है कि ठीक हों या फिर बिल्कुल ही बकवास हों, आप पढ़कर एक बार विचार करें और…

इस लेख पर आप सब अपने विचार अवश्य व्यक्त करें 🙏🙏🙏

आगे मिलेंगे किसी अन्य लेख के साथ

तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

इस लेख श्रृंखला के पिछले भाग में हमने वामपंथियों की “बहरूपिया रणनीति” को समझा आज समझेंगे कि इस बहरूपिया रणनीति में फंस जाने के कारण हमने क्या क्या नुकसान उठाए हैं।

 अर्बन नक्सलियों के जिन भी प्रोपेगैंडा के बारे में मैं आपको बताऊंगा  उनमें एक बात समान होगी कि

** लोगों को कहीं पर भी यह पता नहीं चलेगा कि वो किसके लिए काम कर रहे हैं और किसका प्रोपेगैंडा फैला रहे हैं, लोगों को यही लगता रहेगा कि वो “सत्य की लड़ाई लड़ रहे हैं”।

सबसे बड़ी समस्या यह रही और आज भी है कि इन “अर्बन नक्सलियों” के अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आने के कारण हम यह नहीं पहचान सके और आज भी नहीं पहचान पाते हैं कि इनकी असल मंशा क्या है।

और इसका सबसे बड़ा जो  दुष्परिणाम हुआ है वह है –

**इनका हर एक प्रोपैगैंडा “जन अभियान” बन जाता है –

इनके प्रोपैगैंडा में इनका समर्थन करते हुए भी हम यह नहीं समझ पाते हैं कि हम इनके लिए काम कर रहे हैं और यही इनकी सबसे बड़ी ताकत है और यह सब हमारी जागरूकता की कमी के कारण होता है।

अब तक यह सब कैसे हुआ है, मैं आपको यह समझाने का प्रयास करता हूं

उदाहरण के लिए मैं आपको पिछले वर्ष की और अभी हाल में घटित हुई एक घटना को आपके सामने रखकर इसे समझाने का प्रयास करूंगा।

पिछले वर्ष आपको याद होगा कि “जामिया” के छात्र छात्राओं द्वारा सड़कों पर “सीएए” के विरोध में उग्र प्रदर्शन किया जा रहा था जो कि बाद में पथराव और हिंसा में परिवर्तित हुआ तो पुलिस द्वारा भी जवाब में बलप्रयोग किया गया और जामिया परिसर के अंदर घुसकर “उपद्रवियों” पर लाठीचार्ज किया गया।

अब इस घटना को “अर्बन नक्सलियों” ने द्वारा “विद्यार्थियों पर हुए लाठीचार्ज” की तरह पूरे देश में प्रस्तुत किया जबकि वो सभी लोग हिंसा और पथराव कर रहे थे।

लेकिन उससे यह हुआ कि पूरे देश के कॉलेजों के छात्र छात्राओं का समर्थन उन्हें प्राप्त होने लगा क्योंकि उन्होंने इस बात को पूरी “छात्र बिरादरी पर हमले और अत्याचार” की तरह प्रस्तुत किया लेकिन यहां एक भी छात्र या छात्रा को पता नहीं था कि वो लोग इनके प्रोपैगैंडा में उनके एक तरह के सैनिक बन गए हैं।

अभी हाल ही में घटित हुई एक घटना बताता हूं, सभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर रातों-रात एक हैशटैग ट्रेंड कर गया “स्पीकअपफॉरएसएससीरेलवेएसपिरेंट्स”,

हालांकि तुरंत परीक्षा की भर्ती दिनांक निकाल देने पर यह ज़्यादा तूल नहीं पकड़ पाया लेकिन जैसे ही हैशटैग ट्रैंड किया था तो मुझे इसकी टाइमिंग (timing) देखकर थोड़ी शंका हुई क्योंकि रेलवे भर्ती का मामला २०१७ (2017) से अटका था और इस समय यह ऊपर उठकर आने और कोचिंग सेंटरों के अध्यापकों की इतनी ज़्यादा संलिप्तता इस पर प्रश्नचिंन्ह खड़े कर रही थी।

जब मामला तीन साल से अटका था तो इतने दिन तक आवाज़ क्यों नहीं उठाई गई????

 और एकदम से इसकी मांग के लिए इतना आक्रामक रवैया अपनाया जाना और कोचिंग सेंटरों के मालिकों द्वारा सबको आंदोलन करने के लिए कहा जाना बिल्कुल साफ इशारा था कि अर्बन नक्सलियों द्वारा कोचिंग सेंटरों जिन्हें वो अपने पोस्ट ऑफिस की तरह प्रयोग करते हैं की सहायता से प्रोपैगैंडा फैलाना चालू है।

ताकि देश में एक अस्तव्यस्तता और तनावपूर्ण माहौल पैदा किया जा सके।

**दूसरा नुकसान बहरूपिया रणनीति का यह हुआ है कि हमने एक राज्य मे  एक “अर्बन नक्सली” को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन कर दिया है और “पूर्व रॉ एजेंट आर एस एन सिंह” तो उसे खुले तौर पर सार्वजनिक मंचों से “अर्बन माओइस्ट” बुलाते हैं।

अभी हाल ही में उसी मुख्यमंत्री ने समाचार पत्र में दिए एक विज्ञापन में “सिक्किम” राज्य के लोगों को को चुपके से “सिक्किम की प्रजा” संबोधित करके सिक्किम को भारत से अलग एक “स्वतंत्र राज्य” बता दिया और यह बात राजनीति में सक्रिय सभी लोग जानते हैं कि चीन सिक्किम पर हमेशा से ही अपना अवैध कब्जा चाहता है।

हमें लगा कि यह व्यक्ति तो एक “सेना से सेवानिवृत्त समाजसेवक” के साथ हमारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़कर आया है।

“मफलर बांधकर खांसता हुआ” आया एक “आम आदमी” है जो कि आई आई टी से पढ़ा लिखा “भूतपूर्व आई ए एस” अधिकारी है और हमने उसे बिठा दिया मुख्यमंत्री की कुर्सी पर और अब वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर “चीन और पाकिस्तान समर्थित” विचारधारा को फैला रहा है, सेना के शौर्य पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहा है और दूसरी बार मुख्यमंत्री बन बैठा है।

**तीसरा नुकसान हमें यह हुआ है कि वामपंथियो के प्रोपैंगैंडा को “जनता के प्रश्न” बोलकर छोड़ दिया और बाक़ी जनता ही संभाल लेती है।

  कुछ “निष्पक्ष पत्रकार” प्राइम टाइम में आकर आपको समझाएंगे कि “सरकार से सवाल पूछो”, सरकार से प्रश्न पूछना आपका अधिकार है, आपका कर्त्तव्य है और अगर आप प्रश्न नहीं पूछते हैं तो फिर तो आप भक्त हैं।

बात तो कई लोगों को जंच भी जाती है और यहीं इनके प्रोपैगैंडा की शुरुआत होती है और इनके प्रोपैगैंडा “जनता के सवाल” के् नाम से हर जगह छोड़ दिए जाते हैं और “सरकार से सवाल पूछो” वाली विचारधारा से प्रभावित लोग इसको आगे बढ़ाते रहते हैैं यह सोचकर कि वह तो सत्य की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि बेचारे इस बात से पूर्णतः अनजान होते हैं कि वह अर्बन नक्सलियों का प्रोपेगैंडा चला रहे होते हैं।

तो क्या फिर सरकार से प्रश्न ही न पूछें???

बिल्कुल पूछें लेकिन आपके प्रश्न आपके कार्यक्षेत्र से उठने चाहिए ना कि “एनडीटीवी” के स्टूडियो या दस जनपथ से।

कोई “तथाकथित निष्पक्ष पत्रकार” के अपने प्रोपेगैंडा वाले प्रश्नों को आप “जनता के प्रश्न” समझकर बिल्कुल न पूछें।

प्रत्येक व्यक्ति का प्रश्न‌ अलग होगा और उसके कार्यक्षेत्र में आने वाली समस्याओं के आधार पर उठेगा।

एक किसान का प्रश्न उसके खेत से, एक व्यापारी का प्रश्न उसकी दुकान से, एक शिक्षक का प्रश्न उसके विद्यालय से उठेगा, क्योंकि अगर समाधान चाहिए तो प्रश्न ही आपके द्वारा उठाया जाना चाहिए न कि किसी “प्रोपेगैंडाधारी समाचार चैनल” के स्टूडियो से….

क्योंकि उनको तो देश में अस्तव्यस्तता और एक तरह का तनाव चाहिए और हमें हमारी समस्याओं का समाधान, अब जब दोनों के लक्ष्य अलग हैं तो प्रश्न पूछने का तरीका भी अलग ही होना चाहिए।

है न??

आगे किसी और लेख के साथ मिलूंगा तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

पिछले लेखों में मैंने आपको काफी सारी जानकारी दी कि किस तरह ये “अर्बन नक्सली” काम करते हैं।

आज बताता हूं आपको इनके बहरूपिया होने के बारे में।

  इन्हें अर्बन नक्सली या शहरी नक्सली, वामपंथी, कम्युनिस्ट और लिबरल (liberal) भी कहते हैं लिबरल इसीलिए क्योंकि यह स्वयं को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि ये अन्य विचारों के लिए हमेशा खुले हुए हैं और बड़े उदारवादी हैं लेकिन ढ़ोल अपनी पोल स्वयं खोल ही देता है।

यह भी इनकी एक रणनीति का ही हिस्सा होता है कि सबके सामने अलग-अलग रूपों में आते हैं।

 इनसे बड़ा बहरूपिया कोई हो नहीं सकता।

कभी ये उदारवादियों या लिबरल (liberals) के रूप में आपके सामने आते हैं, तो कभी नारीवादियों या फेमिनिस्ट (feminists) के रूप में, कभी नास्तिक (athiest), तो कभी बुध्दिजीवीयों (intellectuals) और पत्रकार के रूप में, कभी बुकर पुरस्कार विजेता लेखक के रूप में, तो कभी किसी फिल्म निर्देशक (director), अभिनेताओं – अभिनेत्रीयों (actors – actresses), स्टैंड अप कॉमेडियन्स (stand up comedians) के रूप में, कभी सामाजिक कार्यकर्ताओं (social activists), मानवाधिकार संगठनों, छात्रों (students) और किसी बड़े विश्वविद्यालय (University) के प्रोफेसर के रूप में।

ये सब लोग आपको अलग-अलग जगहों और क्षेत्रों में दिखाई देंगे पर इन सबकी भाषा एक जैसी ही होती है – अनावश्यक आलोचना की, देशद्रोह की, हिंसा के समर्थन की, धर्म – संस्कृति, देवी-देवताओं और महापुरुषों के अपमान की, और चूंकि यह अलग-अलग कार्यक्षेत्रों (work fields) से होते हैं अलग-अलग मंचों से बोलते हैं तो हम समझ नहीं पाते कि ये सब एक ही हैं लेकिन इनकी भाषा पर अगर आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि हैं ये सब अर्बन नक्सली ही।

असल में यही इनकी चाल होती है कि ये गैर राजनीतिक क्षेत्रों में व्याप्त रहते हैं और बिल्कुल गैर राजनीतिक मंचों (non political platforms) से अपनी “अर्बन नक्सलियों” वाली भाषा बोलते हैं ताकि आपको लगे कि ये व्यक्ति तो राजनीति में नहीं है और न ही किसी राजनीतिक मंच से ऐसी बात कर रहा है तो कुछ तो सच्चाई इस व्यक्ति की बात में होगी ही और कई लोग इसी कारण इनके विचारों से प्रभावित हो जाते हैं क्योंकि ये बहरूपिए होते हैं, जो दिखेंगे तो आपको किसी नास्तिक बॉलीवुड गानों के लेखक (bollywood song writer) या निष्पक्ष पत्रकार या किसी स्टैंड अप कॉमेडियन्स (stand up comedians) के रूप में लेकिन होते हैं सब के सब “अर्बन नक्सली”।

आपको लगता है कि ये तो फलां-फलां “निष्पक्ष पत्रकार” या “बॉलीवुड के किसी नास्तिक शायर” ने बोला है तो सही ही बोला होगा क्योंकि ये नेता थोड़े ही हैं और अगर नेता नहीं हैं तो इनके कोई राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) भी नहीं होंगे तो फिर कुछ तो सच्चाई होगी ही इनकी बात में और आप प्रभावित हो जाते हैं और यहीं इनकी रणनीति सफल हो जाती है।

चूंकि ये अपने आपको “राजनीति से बिल्कुल ही अछूता या अलिप्त” बताते हैं ताकि अधिक से अधिक संख्या में लोगों का समर्थन ये प्राप्त कर सकें और इनकी कही गई बातें अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक लगें।

इनका स्वयं को राजनीति से अलग रखने का यही कारण है कि राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का जनता कम भरोसा करती है क्योंकि उनके राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, नेता कुछ भी कहें, कुछ भी करें, तो उनकी बात को जनता यह कहकर नकार देती है कि कोई मतलब तो अवश्य होगा, कोई राजनीतिक स्वार्थ तो अवश्य होगा और अर्बन नक्सली बहरूपिए के रूप में रहते हैं इसलिए इनके राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) लोगों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखते।

इनका “बहरूपिया” होना ही इनकी ताक़त है और बहरूपिए के रूप में बोलना ही इनकी रणनीति है।

हम सत्ताएं बदलने में व्यस्त रहे और इन्होंने पूरी की पूरी व्यवस्था पर ही कब्ज़ा कर लिया क्योंकि ये जानते थे कि “सत्ता” तो मात्र पांच साल ही चलनी है और “व्यवस्था” चलेगी पूरे साठ साल और व्यवस्था में ही बैठकर इन लोगों ने देश को खोखला करने का काम किया है।

पूरे पाठ्यक्रम (syllabus) को इस तरह की रूपरेखा दी गई इस तरह से डिज़ाइन किया गया कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी में अपने भारतीय होने के प्रति हीन भावना भर गई और आक्रमणकारियों के हमसे बेहतर और महान होने की भावना।

असल में स्कूली किताबों के माध्यम से हमें “तथाकथित कम्युनिज्म” की भाषा ही सिखाई जा रही थी, हमें हमारी ही संस्कृति के प्रति विद्रोही बनाया जा रहा था, कालांतर में हमारी संस्कृति में व्याप्त हो चुकी “विषमताओं” (oddities) को ही हमारी संस्कृति के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया गया।

या यूं कहें कि हमारे पाठ्यक्रमों में हमारी समृद्ध संस्कृति की जगह उसकी “विषमताओं” को पढ़ाकर उन्हीं विषमताओं को ही हमारी संस्कृति बता दिया गया जिसने पूरी एक पीढ़ी के मन में यह भर दिया कि हम “अंधविश्वासी” और “अवैज्ञानिक” थे।

वामपंथियों की इस “बहरूपिया रणनीति” के हमें क्या- क्या नुकसान झेलने पड़े हैं वो आपको लेख के अगले भाग में बताऊंगा।

तब तक के लिए हर हर महादेव 🙏🙏🙏

“लाख समस्याओं का एक समाधान – सनातन”

इस वामपंथ लेख श्रृंखला में  हमने वामपंथियों और उनकी रणनीतियों के बारे में जाना।

आज जानेंगे कि इस राक्षसी प्रवृत्ति के लोगों से बचने का तोड़ क्या है –

अगर मैं आप सबसे सीधे शब्दों में  कहूं कि इन लोगों का तोड़ एक ही है वो है –

 “सनातन” संस्कृति को अपने जीवन आचरण में लाना। तो आप क्या कहेंगे???

शायद आप थोड़ा चौंक जाएंगे!! या फिर शायद न भी चौंके….. पर सत्य तो यही है……

 तो आज हम साम्यवाद (communism) और सनातन के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन करेंगे और आखिर तक मैं इस बात को पूरा समझाने का प्रयास करूंगा कि कैसे हम सबका अपने “सनातन मूल्यों” का अभ्यास करना हमारे देश को वामपंथियों  की हिंसा की विचारधारा (leftists’s ideology of violence) से मुक्त कर सकता है।

अगर “साम्यवादियों” ( communists)  के सिध्दांतों की बात की जाए  तो चाहे वो –

*सीमाओं के उन्मूलन की विचार हो।

*राज्य या राष्ट्र अवधारणा को समाप्त करना या फिर अराजकता के समर्थन का सिध्दांत हो।

*एक वर्गविहीन (categoryless) समाज की स्थापना का विचार हो जिसमें जाति या वर्ग न हो सिर्फ मानवता की ही बात हो।

*धन और संपत्ति का वितरण आवाश्यकतानुसार हो और समाज के ही द्वारा हो, कोई भी व्यक्ति व्यक्तिगत संपदा न रखे।

अब यहां पर अगर इन सब सिध्दांतों पर गौर किया जाये तो आप पायेंगे कि इनमें कुछ ग़लत नहीं है बल्कि बातें तो बड़ी ही अच्छी कही गईं हैं और इनसे निर्धन – ग़रीब, वंचित – शोषित प्रभावित भी जल्दी हो सकते हैं।

लेकिन इन सब सिध्दांतों को लागू करने का मूल भाव होना चाहिए था “प्रेम और करूणा” ।

और इन सब सिध्दांतों का अनुसरण तो बिना सत्ता में रहे भी किया जा सकता था, इसमें सत्ता प्राप्ति की कोई आवश्यकता नहीं थी।

यहीं सबसे “महाभयंकर भूल” इन वामपंथियों (leftists) ने कर दी।

साम्यवादी सिध्दांतों (communism) को लागू करवाने के लिए इन्होंने प्रेम और करूणा की बजाय “हिंसा का मार्ग” (path of voilence) अपनाया और वर्तमान तंत्र (current system) को उखाड़ फेंक “साम्यवादी शासन” (communist rule) स्थापित करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए “हिंसा का मार्ग” अपनाया।

यहीं इनका मानवतावादी होने का दावा ही समाप्त हो गया।

इसका कारण सिर्फ इतना ही है कि जब कोई भी व्यक्ति अपनी विचारधारा (ideology) या उन सिद्धांतों (principles) जिनको वो अपने जीवन के आचरण हेतु सबसे आदर्श मानता है। उन सिद्धांतों के बारे में यह मानने लगे कि “सिर्फ यही विचारधारा सर्वश्रेष्ठ है” और इतनी श्रेष्ठ (superior) है कि समाज को इसका अनुसरण कराने के लिए हिंसा का मार्ग भी अपनाया जा सकता है तब यह एक उन्माद (frenzy), एक पागलपन में बदल जाता है।

बिल्कुल यही स्थिति “जिहादियों और आतंकवादियों” की है  क्योंकि उनका भी यही मानना है कि हमारा मज़हब  इतना अधिक श्रेष्ठ (superior) है कि विश्व के सभी लोगों को इस मज़हब का अनुयायी बनाने के लिए हिंसा भी करनी पड़े तो भी उसमें कोई ग़लत बात नहीं है क्योंकि हम हिंसा ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ ध्येय की सिध्दि (fruition of the best motto) के लिए ही कर रहे हैं और इस तरह वो अपनी हिंसा को न्यायसंगत (justified) बताते हैं।

और यही हाल इन वामपंथियों का भी है इनको भी अपना ध्येय सर्वश्रेष्ठ मालूम पड़ता है जिससे ये भी हिंसा करते आ रहे हैं और हर मंच से हिंसा की न्यायसंगतता सिध्द करते हैं इसीलिए यह दोनों अब साथ हो लिए हैं।

यह पागलपन काफी समय से चला  आ रहा है।

एक मज़हब के मानने वाले कट्टरपंथियों ने भी और साम्यवादी विचारधारा (communism) को मानने वाले लोगों ने अपने शांतिपूर्ण मज़हब और विचारधारा को प्रसारित करने या फैलाने के लिए प्रेम और करूणा नहीं बल्कि “हिंसा” (voilence) का मार्ग अपनाया।

शांति का मज़हब फैलाने के लिए अशांति का सहारा लिया गया।

और मानवतावाद (humanism) की बात करने वाले साम्यवादियों (communism) ने अपने तंत्र को लागू करने के लिए  “अमानवीयता”(inhumanity) का मार्ग अपनाया।

अब आते हैं उस बात पर कैसे सनातन मूल्यों के बल से हम इन “हिंसक राक्षसों” को हरा सकते हैं।

उदाहरण के लिए मान लीजिए कि “आप एक समुद्र के किनारे बैठे हैं और समुद्र क्षेत्र पर आपका पूर्ण अधिकार है, आप सारा समुद्र घूम सकते हैं उसमें स्नान कर सकते हैं  यानि कि समुद्र भी आपका और समुद्र तट भी आपका…..

अगर मैं वहां आकर आपसे कहूं कि ज़रा मेरे साथ आइये मैं आपको पानी से भरा एक छोटा सा तालाब या छोटी सी नदी दिखाना चाहता हूं तो आप क्या कहेंगे???

आपकी तो हंसी निकल पड़ेगी…..

आप कहेंगे कि जिसके पास पूरा का पूरा समुद्र उपलब्ध है वो छोटे मोटे नदी – तालाबों के पीछे क्यों भागेगा???

अब इसी चीज़ को इस तरह समझिए कि वह समुद्र है हमारी “सनातन संस्कृति और उसका शाश्वत ज्ञान” और वह गांव का छोटा सा तालाब या नदी है साम्यवाद।

आपको शायद थोड़ा गुस्सा आ रहा होगा कि ये आदमी “साम्यवाद” (communism) और सनातन की बात एक साथ कैसे कर रहा है क्योंकि आपको पिछले लेखों में जो वामपंथ (left wing) के बारे में जो जानकारी मिली उससे तो आपको अब “वामपंथ” शब्द ही एक गाली लगने लगा होगा, यही होता है मित्रों जब कोई भी सिध्दांत, चाहे वो कितना ही उच्च कोटि का क्यों न हो, कोई भी मज़हब, चाहे कितनी भी “शांति” की बातें क्यों न करता हो अगर हिंसा के द्वारा अपने सिध्दांत थोपेगा तो गाली ही बनकर रह जायेगा।

हिंसा से कभी शांति और मानवता नहीं फैलती।

अब सनातन‌ वो समुद्र कैसे हुआ ये समझते हैं –

*कम्युनिज्म धन का वितरण समाज के हाथ में होना चाहिए ऐसी बात कहता है….

और सनातन इस बारे में क्या कहता है सुनिए….

सनातन कहता है  –

“शतहस्त समाहर सहस्त्र हस्त संकिर” –

 अर्थात् “सौ हाथों से कमाओ और हज़ार हाथों से दान करो”

*(अथर्ववेद 3/24/5)

अगर इस सीख को हम अपने जीवन में अनुसरण करें।

तो धन किसी के भी पास रहे उस व्यक्ति तक पहुंच ही जायेगा जिसको धन की आवश्यकता है।

और यह बात लागू तो सबके लिए  लागू होती है लेकिन धनवानों को तो स्वेच्छा से ही यह बात माननी चाहिए।

इससे पूरे राष्ट्र में कोई वंचित न रहेगा।

**साम्यवाद कहता है कि सीमाओं का उन्मूलन अर्थात् देशों की सीमाएं (borders of the nations) समाप्त कर देनी चाहिए और समाज वर्गविहीन हो, सिर्फ मानवता की बात हो।

जबकि सनातन इस विचार को और बेहतर तरीके से करूणापूर्वक कहता है।

“अयं निज: प्रो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।।

*(महोपनिषद्, अध्याय ४(4), श्‍लोक ७१(71))

अर्थात् यह अपना बंधु है यह अपना बंधु नहीं है ऐसी छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वालों के लिए तो पूरी धरती ही परिवार है।

अब अगर यह बात जीवन में हम उतार लें तो हमारे मन की सीमाएं तो वैसे ही समाप्त हो गईं फिर भौतिक सीमाएं (physical borders) का मूल्य ही नहीं रह जायेगा, जब सभी अपना ही परिवार हैं तो क्या आस्ट्रेलिया और क्या जापान??? राष्ट्र और वर्गों में बंटे समाज  की अवधारणा तो ऐसे ही समाप्त हो गई।

और सबसे बड़ी बात यह है कि यह सब बातें सनातन प्रेम और करुणा के द्वारा प्रसारित करने की बात करता है न कि हिंसा के द्वारा।

सनातन में दान की तो कई जिस की ही गई है साथ ही पुरुषार्थ और स्वाबलंबन की बात भी कही गई है ताकि लोग आलस्यपूर्ण और अकर्मण्य (निकम्मे) न हो जायें।

ताकि लोगों की इस दान वृत्ति का दुरुपयोग न हो।

अब जब किसी भी व्यक्ति के पास पूरा “समुद्र” ही उपलब्ध हो तो वो छोटे मोटे नदी तालाबों से क्या प्रभावित होगा और सनातन का अर्थ ही है जो अनंत है, और अंतिम गंतव्य (final destination) है सबसे अच्छी बात यह है कि मतभेदों के लिए भी जगह है, बदलाव के लिए हम हमेशा तैयार रहते हैं हर सदी में “ब्रह्मसूत्र” पर एक टीका लिखते हैं, अगर कोई मतभेद हो तो “शास्त्रार्थ” की व्यवस्था है, यहां तक कि  ईश्वर में नहीं मानोगे तो “नास्तिक” होने की भी सुविधा है,

नास्तिक हो फिर भी हिंदू हो।

ये जो मैंने यहां बताया ये तो सनातन समुद्र की एक बूंद भी न थी,‌ अभी तो पूरा समुद्र नापना है।

अब अगर आपको यह सब अपने जीवन में उतारना कठिन लगता है तो एक बात मैं आपसे कह दूं कि समुद्र की सैर करने की बात करोगे तो समुद्री तूफान भी आपके हिस्से आयेंगे लेकिन विश्वास मानिए कि इस “सनातनी समुद्र” की यात्रा ही  इतनी आनन्द दायक होगी कि तूफान बहुत छोटे मालूम पड़ेंगे।

ये तो हुई बड़े स्तर पर इनसे निपटने की बात…..

ये बिल्कुल ही अंतिम समाधान था…

अब सनातन से निकले समाधान तो अंतिम और स्थायी ही होंगे न।

आगे और भी कुछ कहना है कि हम छोटे छोटे और क्या क्या प्रयास कर सकते हैं कि जिससे हम बाहरी स्तर पर इनसे निपट सकें। 🙏🙏🙏🙏

तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏🙏

पिछले लेखों में हमने जाना कि किस तरह से किस तरह नक्सलियों द्वारा वन्य क्षेत्रों में फिरौती वसूली जाती है और किन कार्यों में यह पैसा अर्बन नक्सलियों द्वारा उपयोग किया जाता है।

आज बात करेंगे कि किस तरह आपातकाल के समय वामपंथियों ने देश की पूरी व्यवस्था में सेंधमारी कर उस पर अपना कब्ज़ा जमा लिया।

 सन २००४ (2004) में माओवादी संविधान “स्ट्रेटिजी एंड टैक्टिक्स डॉक्यूमेंट विथ द अर्बन पर्सपेक्टिव” (strategy and tactics document with the urban perspective) पर आधारित जो एफिडेविट सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था और फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री यह दावा करते हैं कि उनके पास पर्याप्त साक्ष्य हैं कि जिन लोगों ने भूल से इस रिपोर्ट को सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत कर दिया था उन्हें सोनिया गांधी द्वारा नेशनल एडवाइजरी काउंसिल (NAC – national advisory council) गठित कर  दण्डित किया गया था।

विवेक अग्निहोत्री द्वारा “बुध्दा इन ए ट्राफिक जाम” नामक एक फिल्म बनाई गई जिसे उन्होंने अनजाने में बनाया था, उन्हीं फिल्म वितरकों को रिलीज़ के लिए दे दी जो कि स्वयं शहरी नक्सली थे बिना इस अनुमान के कि यह फिल्म  इनके ही विरुद्ध थी, फिर जेएनयू में यह फिल्म दिखाने के लिए जेएनयू की सिनेमा शिक्षण विभाग की डीन को भेजी जबकि वो भी स्वयं एक “शहरी नक्सली” थीं।

जाधवपुर विश्वविद्यालय में भी इस फिल्म के कारण “विवेक अग्निहोत्री” पर हमला किया गया क्योंकि यह विश्वविद्यालय भी जेएनयू की तरह इन शहरी नक्सलियों का गढ़ बन चुका है और यहां कई नेताओं के कार्यक्रम में प्रदर्शन भी किए गए हैं।

इस सब में कांग्रेस पार्टी के प्रत्यक्ष रूप से सम्मिलित होने के कारणों पर जब उन्होंने शोध किया तो उन्हें कुछ “सीआईए” और “केजीबी” जासूसी संस्थानों के दस्तावेज प्राप्त हुए जिनमें एक भारतीय राजनेत्री के लिए शब्द “वानो” (VANO) प्रयोग किया गया था जिसे आगे और शोध करने पाया गया कि एक “सीआईए” और “केजीबी” डॉक्यूमेंट के दस्तावेजों पर आधारित पुस्तक “मित्रोखिन आर्काइव्स”(mitrokhin archives) में यह उल्लेख है कि यह शब्द तत्कालीन प्रधानमंत्री “इंदिरा गांधी” के लिए प्रयोग किया गया था और यह बात इसी पुस्तक का संदर्भ देकर शास्त्रीजी की रहस्यपूर्ण मृत्यु पर आधारित फिल्म “ताशकंद फाइल्स” में भी दिखाई गई थी।

सत्तर के दशक में जब इंदिरा गांधी की पकड़ कमज़ोर पड़ रही थी तब उन्होंने अपने पैर वापस से जमाने के लिए तब सारे कम्युनिस्टों से सहायता  ली और यहीं “इंदिरा गांधी” ने अनजाने में बहुत बड़ी भूल कर दी।

इंदिरा गांधी और कम्युनिस्टों के बीच की सौदेबाज़ी में, कम्युनिस्टों द्वारा इंदिरा गांधी को समर्थन दिया गया और बदले में कम्युनिस्टों ने देश की व्यवस्था में सारे महत्वपूर्ण पद कब्ज़ा लिए।

नूरुल हसन को शिक्षा मंत्री बना दिया गया, कला और संस्कृति विभागों के महत्वपूर्ण पदों और मीडिया में एक के बाद एक सारे कम्युनिस्टों को बैठा दिया गया।

उस समय समाचार पत्रों में प्रकाशन के लिए एक कोटा निर्धारित था जिसे “न्यूज़ प्रिंट” कहा जाता था उसमें कुछ भी प्रकाशित करने से पहले इंदिरा गांधी और नूरुल हसन द्वारा सहमति देने के बाद ही प्रकाशन की अनुमति मिलती थी और यह न्यूज़ प्रिंट पूरा का पूरा कम्युनिस्टों को दे दिया गया।

अब आप यह समझ ही सकते हैं कि अगर कोई एक विशेष राजनीतिक विचारधारा का समर्थक व्यक्ति किसी महत्वपूर्ण और प्रभावी पद पर आसीन हो जाता है तो वह कौन कौन से तरीके न अपनायेगा लोगों को उस विचारधारा के प्रति झुकाने में??

और यहां तो सभी प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण पदों पर ही कम्युनिस्टों की पूरी की पूरी फौज बैठा दी गई थी।

फिर उसी समय से ही, लगभग सन् १९७५ (1975) के बाद से ही कम्युनिस्टों ने अपनी योजना के अंतर्गत हिंदू संस्कृति और सभ्यता पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और इसी कारण १९७५ (1975) के बाद से ही जो भी पीढ़ियां आईं वो अपने हिंदू परिवारों में जन्म लेने के कारण एक तरह के पिछड़ेपन और हीन भावना को लेकर बड़े हुए क्योंकि उन्हें हमारी संस्कृति की महानता, चंद्रगुप्त मौर्य, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी जैसे महान हिंदू सम्राटों, हम्पी और खजुराहो जैसी महान और अध्यात्मिक शिल्पकलाओं, श्री अरविंदो, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुषों के बारे में उनका ज्ञान अति अल्प या नगण्य था और इसका कारण यही था कि भारत और भारतीय संस्कृति की महानता को सिध्द करने वाली सभी घटनाओं और सभी साक्ष्यों को विद्यालयों के पाठ्यक्रम में कम से कम या नगण्य स्थान दिया गया।

इसके विपरीत भारत के इतिहास की सभी नकारात्मक घटनाओं और बर्बर आक्रमणकारियों के गुणगान से पाठ्यक्रमों को भर दिया गया ताकि एक हीन भावना से ग्रसित समाज भारत देश में उत्पन्न किया जा सके क्योंकि हीन भावना से ग्रसित समाज कभी सत्य के लिए उठ नहीं सकता और न राष्ट्र की रक्षा के लिए लड़ सकता है और उसे गुलामों की तरह किसी भी तरफ मोड़ना बिल्कुल आसान होता है।

वामपंथियों के दस्तावेज रूपी संविधान – “स्ट्रेटिजी एंड टैकटिक्स डॉक्यूमेंट विथ अर्बन पर्सपेक्टिव” (strategy and tactics document with the urban perspective) में यह साफ साफ लिखा है कि हिंदूओं की धार्मिक मान्यताओं और धार्मिक स्थलों को सीधी चुनौती दी जाये ताकि हिंदू परिवारों का वहां जाना बंद हो जाए।

इसी षड्यंत्र के अनुसार “खजुराहो के मंदिरों” को “कामुकता” के प्रतीक के रूप में भारतीयों के समक्ष प्रस्तुत किया गया जबकि खजुराहो के मंदिरों के बाहर बनी कुछ “तांत्रिक” हैं और “अध्यात्मिक प्रक्रिया” में उनका प्रयोग ध्यान हेतु किया जाता रहा है। इसकी विस्तृत चर्चा बाद में करेंगे।

भारत के सारे महान विचारों और घटनाओं को इन लोगों ने पूर्णतः बर्बाद करने का प्रयास किया है एवं पूरी शिक्षा व्यवस्था का आधुनिकीकरण करने स्थान पर अमेरिकीकरण और अंग्रेज़ीकरण करने पर अधिक ज़ोर दिया या यूं कहें कि शिक्षा के अमेरीकीकरण और अंग्रेज़ीकरण को ही आधुनिकता का नाम दे दिया, उसका पर्याय बना दिया।

कांग्रेस पार्टी द्वारा अर्बन नक्सलियों के कब्जे वाले कई संगठन गठित किए – “नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन”, “चाइल्ड फिल्म डेवलपमेंट कॉरपोरेशन” इत्यादि  जिनके सिंहासन “अर्बन नक्सलियों” के लिए सुरक्षित थे तभी हिंदी फिल्मों में हिंदू धर्म और संस्कृति का निरंतर मज़ाक उड़ाया जाता रहा है।

ये लोगों भारत के बाहरी दुश्मनों से अधिक ख़तरनाक हैं क्योंकि ये भारत को अंदर से खोखला तो कर ही रहे हैं, साथ ही बाहरी विरोधी भी इनसे अप्रत्यक्ष रूप से सहायता प्राप्त करते हैं।

इन लोगों को हमें पहचानने आवश्यकता है और इनका हर तरफ से विरोध करना है ताकि देश को इनसे बचाया जा सके।

अब शेष बातें आगे के लेख में और शायद अगला लेख वामपंथ लेख श्रृंखला का अंतिम लेख हो।

तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏