सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

इस लेख श्रृंखला के पिछले भाग में हमने वामपंथियों की “बहरूपिया रणनीति” को समझा आज समझेंगे कि इस बहरूपिया रणनीति में फंस जाने के कारण हमने क्या क्या नुकसान उठाए हैं।

 अर्बन नक्सलियों के जिन भी प्रोपेगैंडा के बारे में मैं आपको बताऊंगा  उनमें एक बात समान होगी कि

** लोगों को कहीं पर भी यह पता नहीं चलेगा कि वो किसके लिए काम कर रहे हैं और किसका प्रोपेगैंडा फैला रहे हैं, लोगों को यही लगता रहेगा कि वो “सत्य की लड़ाई लड़ रहे हैं”।

सबसे बड़ी समस्या यह रही और आज भी है कि इन “अर्बन नक्सलियों” के अलग-अलग रूपों में हमारे सामने आने के कारण हम यह नहीं पहचान सके और आज भी नहीं पहचान पाते हैं कि इनकी असल मंशा क्या है।

और इसका सबसे बड़ा जो  दुष्परिणाम हुआ है वह है –

**इनका हर एक प्रोपैगैंडा “जन अभियान” बन जाता है –

इनके प्रोपैगैंडा में इनका समर्थन करते हुए भी हम यह नहीं समझ पाते हैं कि हम इनके लिए काम कर रहे हैं और यही इनकी सबसे बड़ी ताकत है और यह सब हमारी जागरूकता की कमी के कारण होता है।

अब तक यह सब कैसे हुआ है, मैं आपको यह समझाने का प्रयास करता हूं

उदाहरण के लिए मैं आपको पिछले वर्ष की और अभी हाल में घटित हुई एक घटना को आपके सामने रखकर इसे समझाने का प्रयास करूंगा।

पिछले वर्ष आपको याद होगा कि “जामिया” के छात्र छात्राओं द्वारा सड़कों पर “सीएए” के विरोध में उग्र प्रदर्शन किया जा रहा था जो कि बाद में पथराव और हिंसा में परिवर्तित हुआ तो पुलिस द्वारा भी जवाब में बलप्रयोग किया गया और जामिया परिसर के अंदर घुसकर “उपद्रवियों” पर लाठीचार्ज किया गया।

अब इस घटना को “अर्बन नक्सलियों” ने द्वारा “विद्यार्थियों पर हुए लाठीचार्ज” की तरह पूरे देश में प्रस्तुत किया जबकि वो सभी लोग हिंसा और पथराव कर रहे थे।

लेकिन उससे यह हुआ कि पूरे देश के कॉलेजों के छात्र छात्राओं का समर्थन उन्हें प्राप्त होने लगा क्योंकि उन्होंने इस बात को पूरी “छात्र बिरादरी पर हमले और अत्याचार” की तरह प्रस्तुत किया लेकिन यहां एक भी छात्र या छात्रा को पता नहीं था कि वो लोग इनके प्रोपैगैंडा में उनके एक तरह के सैनिक बन गए हैं।

अभी हाल ही में घटित हुई एक घटना बताता हूं, सभी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर रातों-रात एक हैशटैग ट्रेंड कर गया “स्पीकअपफॉरएसएससीरेलवेएसपिरेंट्स”,

हालांकि तुरंत परीक्षा की भर्ती दिनांक निकाल देने पर यह ज़्यादा तूल नहीं पकड़ पाया लेकिन जैसे ही हैशटैग ट्रैंड किया था तो मुझे इसकी टाइमिंग (timing) देखकर थोड़ी शंका हुई क्योंकि रेलवे भर्ती का मामला २०१७ (2017) से अटका था और इस समय यह ऊपर उठकर आने और कोचिंग सेंटरों के अध्यापकों की इतनी ज़्यादा संलिप्तता इस पर प्रश्नचिंन्ह खड़े कर रही थी।

जब मामला तीन साल से अटका था तो इतने दिन तक आवाज़ क्यों नहीं उठाई गई????

 और एकदम से इसकी मांग के लिए इतना आक्रामक रवैया अपनाया जाना और कोचिंग सेंटरों के मालिकों द्वारा सबको आंदोलन करने के लिए कहा जाना बिल्कुल साफ इशारा था कि अर्बन नक्सलियों द्वारा कोचिंग सेंटरों जिन्हें वो अपने पोस्ट ऑफिस की तरह प्रयोग करते हैं की सहायता से प्रोपैगैंडा फैलाना चालू है।

ताकि देश में एक अस्तव्यस्तता और तनावपूर्ण माहौल पैदा किया जा सके।

**दूसरा नुकसान बहरूपिया रणनीति का यह हुआ है कि हमने एक राज्य मे  एक “अर्बन नक्सली” को मुख्यमंत्री के पद पर आसीन कर दिया है और “पूर्व रॉ एजेंट आर एस एन सिंह” तो उसे खुले तौर पर सार्वजनिक मंचों से “अर्बन माओइस्ट” बुलाते हैं।

अभी हाल ही में उसी मुख्यमंत्री ने समाचार पत्र में दिए एक विज्ञापन में “सिक्किम” राज्य के लोगों को को चुपके से “सिक्किम की प्रजा” संबोधित करके सिक्किम को भारत से अलग एक “स्वतंत्र राज्य” बता दिया और यह बात राजनीति में सक्रिय सभी लोग जानते हैं कि चीन सिक्किम पर हमेशा से ही अपना अवैध कब्जा चाहता है।

हमें लगा कि यह व्यक्ति तो एक “सेना से सेवानिवृत्त समाजसेवक” के साथ हमारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़कर आया है।

“मफलर बांधकर खांसता हुआ” आया एक “आम आदमी” है जो कि आई आई टी से पढ़ा लिखा “भूतपूर्व आई ए एस” अधिकारी है और हमने उसे बिठा दिया मुख्यमंत्री की कुर्सी पर और अब वो मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर “चीन और पाकिस्तान समर्थित” विचारधारा को फैला रहा है, सेना के शौर्य पर प्रश्नचिन्ह खड़े कर रहा है और दूसरी बार मुख्यमंत्री बन बैठा है।

**तीसरा नुकसान हमें यह हुआ है कि वामपंथियो के प्रोपैंगैंडा को “जनता के प्रश्न” बोलकर छोड़ दिया और बाक़ी जनता ही संभाल लेती है।

  कुछ “निष्पक्ष पत्रकार” प्राइम टाइम में आकर आपको समझाएंगे कि “सरकार से सवाल पूछो”, सरकार से प्रश्न पूछना आपका अधिकार है, आपका कर्त्तव्य है और अगर आप प्रश्न नहीं पूछते हैं तो फिर तो आप भक्त हैं।

बात तो कई लोगों को जंच भी जाती है और यहीं इनके प्रोपैगैंडा की शुरुआत होती है और इनके प्रोपैगैंडा “जनता के सवाल” के् नाम से हर जगह छोड़ दिए जाते हैं और “सरकार से सवाल पूछो” वाली विचारधारा से प्रभावित लोग इसको आगे बढ़ाते रहते हैैं यह सोचकर कि वह तो सत्य की लड़ाई लड़ रहे हैं जबकि बेचारे इस बात से पूर्णतः अनजान होते हैं कि वह अर्बन नक्सलियों का प्रोपेगैंडा चला रहे होते हैं।

तो क्या फिर सरकार से प्रश्न ही न पूछें???

बिल्कुल पूछें लेकिन आपके प्रश्न आपके कार्यक्षेत्र से उठने चाहिए ना कि “एनडीटीवी” के स्टूडियो या दस जनपथ से।

कोई “तथाकथित निष्पक्ष पत्रकार” के अपने प्रोपेगैंडा वाले प्रश्नों को आप “जनता के प्रश्न” समझकर बिल्कुल न पूछें।

प्रत्येक व्यक्ति का प्रश्न‌ अलग होगा और उसके कार्यक्षेत्र में आने वाली समस्याओं के आधार पर उठेगा।

एक किसान का प्रश्न उसके खेत से, एक व्यापारी का प्रश्न उसकी दुकान से, एक शिक्षक का प्रश्न उसके विद्यालय से उठेगा, क्योंकि अगर समाधान चाहिए तो प्रश्न ही आपके द्वारा उठाया जाना चाहिए न कि किसी “प्रोपेगैंडाधारी समाचार चैनल” के स्टूडियो से….

क्योंकि उनको तो देश में अस्तव्यस्तता और एक तरह का तनाव चाहिए और हमें हमारी समस्याओं का समाधान, अब जब दोनों के लक्ष्य अलग हैं तो प्रश्न पूछने का तरीका भी अलग ही होना चाहिए।

है न??

आगे किसी और लेख के साथ मिलूंगा तब तक के लिए

हर हर महादेव 🙏🙏🙏

सभी भग्नि बंधुओं को हर हर महादेव 🙏🙏🙏

पिछले लेखों में मैंने आपको काफी सारी जानकारी दी कि किस तरह ये “अर्बन नक्सली” काम करते हैं।

आज बताता हूं आपको इनके बहरूपिया होने के बारे में।

  इन्हें अर्बन नक्सली या शहरी नक्सली, वामपंथी, कम्युनिस्ट और लिबरल (liberal) भी कहते हैं लिबरल इसीलिए क्योंकि यह स्वयं को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि ये अन्य विचारों के लिए हमेशा खुले हुए हैं और बड़े उदारवादी हैं लेकिन ढ़ोल अपनी पोल स्वयं खोल ही देता है।

यह भी इनकी एक रणनीति का ही हिस्सा होता है कि सबके सामने अलग-अलग रूपों में आते हैं।

 इनसे बड़ा बहरूपिया कोई हो नहीं सकता।

कभी ये उदारवादियों या लिबरल (liberals) के रूप में आपके सामने आते हैं, तो कभी नारीवादियों या फेमिनिस्ट (feminists) के रूप में, कभी नास्तिक (athiest), तो कभी बुध्दिजीवीयों (intellectuals) और पत्रकार के रूप में, कभी बुकर पुरस्कार विजेता लेखक के रूप में, तो कभी किसी फिल्म निर्देशक (director), अभिनेताओं – अभिनेत्रीयों (actors – actresses), स्टैंड अप कॉमेडियन्स (stand up comedians) के रूप में, कभी सामाजिक कार्यकर्ताओं (social activists), मानवाधिकार संगठनों, छात्रों (students) और किसी बड़े विश्वविद्यालय (University) के प्रोफेसर के रूप में।

ये सब लोग आपको अलग-अलग जगहों और क्षेत्रों में दिखाई देंगे पर इन सबकी भाषा एक जैसी ही होती है – अनावश्यक आलोचना की, देशद्रोह की, हिंसा के समर्थन की, धर्म – संस्कृति, देवी-देवताओं और महापुरुषों के अपमान की, और चूंकि यह अलग-अलग कार्यक्षेत्रों (work fields) से होते हैं अलग-अलग मंचों से बोलते हैं तो हम समझ नहीं पाते कि ये सब एक ही हैं लेकिन इनकी भाषा पर अगर आप गौर करेंगे तो पायेंगे कि हैं ये सब अर्बन नक्सली ही।

असल में यही इनकी चाल होती है कि ये गैर राजनीतिक क्षेत्रों में व्याप्त रहते हैं और बिल्कुल गैर राजनीतिक मंचों (non political platforms) से अपनी “अर्बन नक्सलियों” वाली भाषा बोलते हैं ताकि आपको लगे कि ये व्यक्ति तो राजनीति में नहीं है और न ही किसी राजनीतिक मंच से ऐसी बात कर रहा है तो कुछ तो सच्चाई इस व्यक्ति की बात में होगी ही और कई लोग इसी कारण इनके विचारों से प्रभावित हो जाते हैं क्योंकि ये बहरूपिए होते हैं, जो दिखेंगे तो आपको किसी नास्तिक बॉलीवुड गानों के लेखक (bollywood song writer) या निष्पक्ष पत्रकार या किसी स्टैंड अप कॉमेडियन्स (stand up comedians) के रूप में लेकिन होते हैं सब के सब “अर्बन नक्सली”।

आपको लगता है कि ये तो फलां-फलां “निष्पक्ष पत्रकार” या “बॉलीवुड के किसी नास्तिक शायर” ने बोला है तो सही ही बोला होगा क्योंकि ये नेता थोड़े ही हैं और अगर नेता नहीं हैं तो इनके कोई राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) भी नहीं होंगे तो फिर कुछ तो सच्चाई होगी ही इनकी बात में और आप प्रभावित हो जाते हैं और यहीं इनकी रणनीति सफल हो जाती है।

चूंकि ये अपने आपको “राजनीति से बिल्कुल ही अछूता या अलिप्त” बताते हैं ताकि अधिक से अधिक संख्या में लोगों का समर्थन ये प्राप्त कर सकें और इनकी कही गई बातें अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक लगें।

इनका स्वयं को राजनीति से अलग रखने का यही कारण है कि राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का जनता कम भरोसा करती है क्योंकि उनके राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं, नेता कुछ भी कहें, कुछ भी करें, तो उनकी बात को जनता यह कहकर नकार देती है कि कोई मतलब तो अवश्य होगा, कोई राजनीतिक स्वार्थ तो अवश्य होगा और अर्बन नक्सली बहरूपिए के रूप में रहते हैं इसलिए इनके राजनीतिक लक्ष्य (political objectives) लोगों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखते।

इनका “बहरूपिया” होना ही इनकी ताक़त है और बहरूपिए के रूप में बोलना ही इनकी रणनीति है।

हम सत्ताएं बदलने में व्यस्त रहे और इन्होंने पूरी की पूरी व्यवस्था पर ही कब्ज़ा कर लिया क्योंकि ये जानते थे कि “सत्ता” तो मात्र पांच साल ही चलनी है और “व्यवस्था” चलेगी पूरे साठ साल और व्यवस्था में ही बैठकर इन लोगों ने देश को खोखला करने का काम किया है।

पूरे पाठ्यक्रम (syllabus) को इस तरह की रूपरेखा दी गई इस तरह से डिज़ाइन किया गया कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी में अपने भारतीय होने के प्रति हीन भावना भर गई और आक्रमणकारियों के हमसे बेहतर और महान होने की भावना।

असल में स्कूली किताबों के माध्यम से हमें “तथाकथित कम्युनिज्म” की भाषा ही सिखाई जा रही थी, हमें हमारी ही संस्कृति के प्रति विद्रोही बनाया जा रहा था, कालांतर में हमारी संस्कृति में व्याप्त हो चुकी “विषमताओं” (oddities) को ही हमारी संस्कृति के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया गया।

या यूं कहें कि हमारे पाठ्यक्रमों में हमारी समृद्ध संस्कृति की जगह उसकी “विषमताओं” को पढ़ाकर उन्हीं विषमताओं को ही हमारी संस्कृति बता दिया गया जिसने पूरी एक पीढ़ी के मन में यह भर दिया कि हम “अंधविश्वासी” और “अवैज्ञानिक” थे।

वामपंथियों की इस “बहरूपिया रणनीति” के हमें क्या- क्या नुकसान झेलने पड़े हैं वो आपको लेख के अगले भाग में बताऊंगा।

तब तक के लिए हर हर महादेव 🙏🙏🙏